Manushya Aur Samaj मनुष्य और समाज
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मनुष्य क्या है? कैसे बना? इस सृष्टि पर कैसे अवतरित हुआ और क्यों हुआ? ये प्रश्न और ऐसे बीसियों प्रश्न एक बुद्धिशील प्राणी के मन में उठा करते हैं। प्राय: साधारण मनुष्य तो यह सोचकर शांत हो जाता है कि जो है सो है, हम क्यों इस सोच-विचार के पचड़े में पड़ें? वह घर-गृहस्थी के झंझटों में इतना व्यस्त रहता है कि सोचने की उसमें क्षमता ही नहीं रहती।
परंतु ऐसे मनुष्य भी सोचने पर विवश हो जाते हैं जब जीवन में कष्ट आने लगते हैं और उन कष्टों के निवारण का मार्ग नहीं सूझता । वह फिर सोचने पर विवश हो जाता है कि आखिर ये कष्ट क्यों आते हैं ? मैंने ऐसा कौन-सा बुरा कार्य किया कि ये कष्ट मुझ पर आए हैं?
एक व्यक्ति को अधरंग हो जाता है और वह सर्वथा पंगु बन चलनेफिरने में असमर्थ हो जाता है तथा कभी-कभी बोलने और अपने दैनिक क्रिया-कलाप भी संपन्न नहीं कर पाता। ऐसे कष्ट को कुछ लोग पिछले जन्म के कर्मों का फल कह देते हैं क्योंकि इस जीवन में उन्हें अपने कर्मों कुछ ऐसा नहीं दिखाई देता जिसका फल उन्हें इस बीमारी के रूप में मिले। में
एक ही परिस्थिति में कुछ लोग रुग्ण हो जाते हैं तो बहुतों को कुछ नहीं होता। ऐसा क्यों? इसका उत्तर उसे कोई डॉक्टर, चिकित्सक नहीं दे सकता। केवल दर्शन ही दे सकता है। वह उसे जन्म-मरण का रहस्य समझाता है और फिर उसे उसी के अनुरूप कर्म करने की प्रेरणा देता है।
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